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अपर्याप्त-कर्म (न)  : पुं० [कर्म० स०] जैन-शास्त्रानुसार वह पाप-कर्म जिसके उदय से जीव के पूर्णता प्राप्त करने में बाधा होती है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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